शिवोहम

आप दैनिक जीवन की व्यस्तता से थककर , थोड़ा सा स्पेस लेने के लिए ,मन को थोड़ी शांति देने के लिए बारिश की इस सुंदर ऋतू में लोनावला की किसी पहाड़ी पर गए हैं। निचे गहरी खाई हैं ,आसपास झरने बह रहे हैं ,बादल आपको छूने के लिए आपके समीप आ रहे हैं , बारिश की नन्ही नन्ही  बुँदे आपको शांत कर रही हैं , आपके विचारों में आपके समक्ष आपका पूरा जीवन किसी नदी की तरह बह रहा हैं , इस जीवन में आये उतार-चढ़ाव , सुख – दुःख ,कष्ट – आनंद ,प्रेम – घृणा सभी आपके सामने से होते हुए गुजर रहे हैं।  आज आप समृद्ध हैं ,परिवार के साथ हैं ,कभी जो स्वप्न देखा था वह आज पूर्ण हो गया हैं फिर भी इस बहती हुई जीवन नदियां को देखकर आपको शांति और सुख की जगह ग्लानि ,क्षोभ ,दुःख और मानसिक संताप ही अधिक हो रहा हैं ,आप संतुष्ट ही नहीं हो पा रहे , सब कुछ प्राप्त करके भी आप अपूर्ण हैं, ऐसा आपको अनुभूत हो रहा हैं। आप विचार करते हैं ,नहीं यह वह जीवन नहीं जो मैंने चाहा था। नहीं यह वह मैं नहीं , जो मैंने कभी बालपन में देखा था ,नहीं यह वह मैं नहीं, यह मेरा जीवन नहीं , यह मैं नहीं ! इस विचार श्रृंखला के चलते अचानक ही आपके मुंह से धीरे से निकल पड़ता हैं ,मैं कौन हूँ ? कौन हूँ मैं ? और अचानक चमत्कार होता हैं। 

आपका यह स्वर सामने वाली पहाड़ी से जाकर टकराता हैं और वहां से एक परावृत ध्वनि यानि इको सुनाई देता हैं , शिवोहम शिवोहम ! 

शिवोहम – शिवोहम। … आप आश्चर्यचकित हो इसका अर्थ समझने के लिए इधर उधर देखते हैं , पर कही कोई नहीं दीखता , कुछ क्षण बाद आपको पुनः वही ध्वनि सुनाई देती हैं, शिवोहम – शिवोहम।  थोड़ा भयग्रस्त हो आप आँखे बंद कर लेते हैं. पर स्वयं को एक बड़े मंदिर में खड़ा पाते हैं ,पत्थर से निर्मित भव्य प्राचीनकालीन मंदिर ,बड़े-बड़े खंबे ,बड़ा सा आँगन और सब तरफ गूंजती एक ही आवाज – शिवोहम शिवोहम , आप थोड़ा सहम कर सामने देखते हैं ,मंदिर के गर्भगृह में एक बड़ी समई जल रही होती हैं उसका दिव्य प्रकाश गर्भगृह को ज्योतिर्मय कर रहा होता हैं ,आप अधिक ध्यान से देखते हैं , गर्भगृह के मध्य एक कालेपत्थर से निर्मित एक शिवलिंग हैं और शिवोहम की आवाज उसी शिव पिंडी से निकल कर आ रही हैं।  आपकी घबराहट थोड़ी कम होती हैं आप उस शिवलिंग के पास जाते हैं और धीरे से हाथ जोड़ कर बैठ जाते हैं वैसे ही जैसे एक पुत्र एक पिता के पास अपने सारे सुख-दुःख लेकर उसकी छत्रछाया में कुछ क्षण सब भूलकर शांत हो जाने के लिए आ जाता हैं। अब बारी शिवलिंग की हैं ,शिवोहम का अब विस्तार होने लगता हैं –
 मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं,न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ,न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः,चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् . आप समझते हैं की यह शिव की कोई माया हैं ,आप पुनः पूर्ण शक्ति से साथ स्वयं को लोनावला की पहाड़ी पर ले आते हैं ,वही बहती नदी ,वही बादल ,वही सुंदर वृक्ष और पौधे ! न चाहते हुए भी आप पुनः आपके जीवन का विचार करने लगते हैं और पुनः आपके मुख से निकलता हैं ,यह सब क्या हैं ? यह मेरा जीवन तो नहीं हैं. समय जैसे आपकी आँखों के सामने से बह रहा हैं , आप कही भी कभी भी संतुष्ट और पूर्णरूपेण सुखी नहीं , यह जो सब कुछ आपने किया , अपने और आपके परिवार के लिए किया , कितना किया ,क्या न किया ! आप सोचते हैं  इस सब में मैं कहा हूँ ? क्या हूँ मैं ? कौन हूँ मैं ? आपके मुंह से इतना निकलने की देरी ही थी की वह आवाज – शिवोहम -शिवोहम पुनः सामने वाली पहाड़ी से लौटकर आपके पास आती हैं , आप कुछ अनमने होकर ज्योही आँखे बंद करते हैं स्वयं को पुनः शिवलिंग के समक्ष पाते हैं , फिर शिवलिंग से वही आवाज ,शिवोहम शिवोहम ! आप जड़वत हो सुनते हैं।   “मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं,न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ,न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः”  यह सीधा सीधा आपकी आइडेंटिटी पर घात हैं , आप शिव को ईश्वर और संसार का पिता मानते हैं ,पर आप उनसे भिन्न हैं ,एक शरीर ,एक आत्मा ,एक नाम ! आपका एक मन हैं , एक चित्त हैं , आपके शरीर में सभी इन्द्रियां हैं जिनको प्रसन्न कर आप भी प्रसन्न हुआ करते हैं। अभी-अभी आपके सामने लोनावला की पहाड़ी के ऊपर एक विशाल आकाश था ,आपके पैरो के निचे अब भी धरती हैं , आपके सामने सूर्य का तेज था , नरम – नरम ठंडी बहती पवन थी , और हैं जो आपकी श्वासों में बह ऑक्सीजन बन रही हैं , आप शिव से भिन्न एक मनुष्य हैं ,एक प्राणी ,एक जीवात्मा ! आपको नाम मिला हैं ,एक काम मिला हैं आप शिव से भिन्न एक पूरा एक अस्तित्व हैं ,वो कहाँ जटाधारी ,योगी और आप कहा सांसारिक मनुष्य , जो शनिवार रविवार परिवार के साथ बिता पाने के लिए हर संभव प्रयत्न करता हैं , जो महीने के शुरवात में सैलरी का पैसा पाकर ,या बिज़नेस में थोड़ा प्रॉफिट कमाकर चार चीज़ घर में और जुटा लेता हैं ,काही शिव कैलाशवासी और कहाँ आप किसी सोसाइटी में रहने वाले मानव ! यह कम्पलीट आइडेंटिटी क्राइसेस हैं ,मैं शिव नहीं हूँ ,शिव तो परमात्मा ,परमपुरुष हैं ,मैं तो यह नाम हूँ यह काम हूँ।  आपके मुंह से यह शब्द निकलते ही एक चमत्कार होता हैं आप स्वयं को शिव के समक्ष एक शिवलिंग के रूप में देखते हैं और देखते हैं की यह शिवोहम की ध्वनि आपके भीतर से ही उठकर आ रही हैं , आप समझते हैं की ज्यादा स्ट्रेस की वजह से आपको कोई मानसिक रोग हो गया हैं , आप हर संभव प्रयत्न करते हैं लोनावला की पहाड़ी पर लौटने का ,पर स्वयं को पुनः अपने मानवीय रूप में शिव के समक्ष पाते हैं ,शिव जैसे शिवलिंग में से गा रहे हो और पिता की तरह आपके सर पर हाथ फिराकर आपको समझा रहे हो ,शिवोहम शिवोहम , इस बार आपके सहनशक्ति का बाँध टूट जाता हैं , आप किसी बालक की तरह भड़भड़ाकर रो देते हैं ,और शिव से कहते हैं नहीं शिव मैं नहीं आप हैं ,मैं मनुष्य हूँ ,मेरा यह नाम हैं।  शिव प्रयत्न नहीं छोड़ते, इस बार शिव रूप में आकर आपको धीरे से उठाकर एक नन्हे बालक के समान गोदी में बिठा लेते हैं और जैसे कोई माता लोरी गाती हैं वैसे ही पुनः गाना शुरू करते हैं ! चिदानंद रूप शिवोहम शिवोहम ! इस बार आप शांत हैं ,सुनने समझने की स्थिति में हैं ,शिव अपनी माया को पुकारते हैं ,शिव की माया आपके ह्रदय पर हाथ रखती हैं ,क्षण मात्र में आप स्वयं को अंतरिक्ष की गहराइयों में खड़ा पाते हैं ,जहाँ आप हैं ,स्वयं शिव हैं और शिव की माया हैं।  
धीरे धीरे शिव आपके अंदर समाहित हो जाते हैं और शिव की माया आपके लिए गायन शुरू करती हैं।   “मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं,न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्रणनेत्रे ,न च व्योम भूमिर्न 
तेजो न वायुः ” इस बार आप अनुभव करते हैं , आप मन नहीं बुद्धि नहीं ,मैं का अहंकार नहीं ,आपका शरीर नहीं ! आप स्वयं को इन सबसे अलग ऐसा कुछ अनुभूत करते हैं जो आपने इससे पहले कभी नहीं किया था ! मनुष्य की छोटी सी बुद्धि अब आपको जकड़े नहीं हैं , नहीं ऑफिस में बैठकर मूवी थिएटर में दौड़ने वाला चंचल गतिमान मन आपके अंदर हैं , जिस नाम को आप इतने समय से अपने अस्तित्व का एक अंग मान रहे थे वह नाम अब आपको याद नहीं , जिस अहंकार को तुष्ट करने के लिए आपने अच्छे बुरे सब प्रत्यन किये ,जिस अहंकार को आप अपना अस्तित्व मान रहे थे वह भी आपके अंदर कही हैं नहीं ! आप अहंकार रहित हैं ,जैसे अहंकार आपका न होकर केवल भ्र्ममात्र हो ,जिस जीभ को अच्छे से अच्छा स्वाद देने के लिए आप न जाने कितने कष्ट उठा रहे थे वह जिव्हा आपके पास हैं ही नहीं ! वह कान जो अपनी प्रशंसा सुनने के लिए तड़पते रहते और उसके लिए भरसक प्रयत्न करते वह आपके पास हैं ही नहीं ! वह नाक जिसे आप रूम फ्रेगरेंस और परफ्यूम ,इत्र की कैद में रखते वह आपकी हैं ही नहीं ,वह आप हैं ही नहीं ! जिस आकाश में आप सूर्य चंद्र तारिकाओं को देखते वह अब हैं ही नहीं ,यह तो कुछ और हैं ! उस धरती को जिसे अपना राज्य मानते वह तो न आपकी हैं, नहीं आपमें कही हैं , आप कुछ और हैं कही और ,यह अनुभूति क्या हैं ? जब तक आप यह समझ पाते आपको पुनः माँ गौरी  की आवाज सुनाई देती हैं।  “न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः,न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ,न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु ” आप अनुभव करते हैं ,जिस प्राण की रक्षा के लिए आप न जाने क्या क्या कर रहे थे ,जिसे अपने शरीर में बसा प्राण मान रहे थे ,जिसे अपना प्राण या आप मान रहे थे वह आप हैं ही नहीं ! आप चुपचाप अपने पुराने शरीर के अंदर जाने का उद्यम करते हैं और वहां देखते हैं कि जिसे आप अब तक अपनी प्राण – अपान – सामान – व्यान – उदान वायु मान रहे थे जो आपके शरीर में  कितने ही प्रकार के कार्य कर रही थी ,वह आप हैं ही नहीं ! आप बाहर निकलते हैं आपको याद आता हैं आपके घर में रखा सोने का कड़ा!  आप उसके पास आते हैं , इस आशा से कि इस कड़े को मैंने हमेशा अपने शरीर पर धारण कर रखा ,शायद यही स्वर्ण धातु से बना कड़ा या स्वर्ण मैं हूँ  ? शिव की गौरी मुस्कुराकर उस कड़े में समाहित होकर गाती है। ” न वा पंचधातु ” आप उद्विग्न हो जाते हैं , तो यह कड़ा या यह स्वर्ण या पांच धातु भी मैं नहीं हूँ ? आप पुनः अपने पुराने शरीर में देखते हैं ,आपको पंचकोश दिखाई देते हैं , अन्नमय , प्राणमय ,मनोमय , विज्ञानमय और आनंदमय।  आप सोचते हैं शायद यही कही ,यही मैं हूँ ! आप यह विचार करते न करते ,गौरी पुनः  गाती हैं ” न वा पञ्चकोशः ” , आप सोचते हैं मैं जिंदगी भर बोलता गया ,कहता गया कही मैं वाणी तो नहीं ? या मेरे शरीर में बसा कोई अंग तो नहीं ,शायद मैं हाथो पैरो में शरीर के किसी अंग में हूँ  शायद मैं कोई शारीरिक अंग ही हूँ ,पर फिर आपको सुनाई देता हैं –  ” न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु ” ! 
आपके सामने अनेकानेक प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं , आपको याद आता हैं कैसे आपको प्रोमोशन मिलने के जगह आपके मित्र को मिल गया था आप सोचते हैं ,पक्का मैं विकारो का रूप हूँ ,मैं द्वेष हूँ क्योकि इतने समय से यही मेरे अंदर क्रोध आदि के रूप में बह रहा हैं , मैं शायद लोभ हूँ क्योकि जब चार पैसे ज्यादा मिल रहे थे तो अपनी सुख शांति छोड़कर मैंने एक्स्ट्रा hours काम करना स्वीकार किया , मैं मोह हूँ क्योकि मुझे अपनी संगिनी ,अपने पुत्रो से अधिक कुछ प्रिय नहीं , मेरा घर मेरे लिए संसार का सबसे बड़ा सुख हैं , और हां शायद मैं जलन की भावना भी हूँ ,क्योकि अपनी ही संगिनी की सफलता पर उसके आनंद पर मुझे कई कई बार जलन हुई हैं ! पर हां मैं बड़ा धार्मिक हूँ कर्मकांड ,यज्ञ ,पूजा पाठ मैंने खूब किया हैं , शायद मैं धर्म ही हूँ ,और अर्थ की प्राप्ति उसके लिए तो बचपन से सिर्फ पढता रहा यौवन में सिर्फ कार्य करता रहा ,न दिन देखे न रात ,और उसकी प्राप्ति से ही मुझे बड़ा सुख मिला तो मैं अर्थ अर्थात ही धन हूँ , मैं शायद काम की भावना भी हूँ क्योकि इस ने ही मुझे पुत्र पुत्रियों का सुख दिया हैं , और इस सबसे परे शायद मैं मोक्ष की भावना हूँ ,मैं ही मोक्ष रूप हूँ। 
आप इन्ही विचारों में गूंथकर जैसे ही सुखभाव में मग्न होते हैं , मायामयी पार्वती अपनेआवरण हटाती हैं और गाती हैं ” न  मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ,मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः,न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः”.  तर्क वितर्क के इस जाल में आप थोड़ा और मग्न हो जाते हैं , आप शिवा से कहते हैं – तुम शायद जानती नहीं शिवे ,मैंने बहुतो को सहारा दिया हैं ,उनके जीवन को संवारा हैं , बहुतों को दिशा दी हैं , मेरे पुण्य इतने हैं की मुझे लगता हैं मैं ही पुण्य हूँ। पर हां तुमसे असत्य क्यों कहु , तारुण्य में मुझे एक लड़की पसंद थी उसके भाई को मैंने बिन बात चार छह जड़ दिए थे क्योकि वह नहीं चाहता था मैं उस लड़की से मिलु ! इतना ही नहीं मैंने एक बार ट्रैफिक पोलिस को २०० रूपये की घुस दी थी ताकि वह बिन वजह का झूठा चालान मुझपे न लगाए और मुझे जल्दी से छोड़ दे।  गिनवाने जाओ तो ऐसे बहुतसे छोटे बड़े पापकर्म मैंने किये हैं इसलिए शायद मैं पाप ही हूँ।  तुम्हे ज्ञात हैं गौरी जब पहली बार मुझे सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सम्मान मिला था तो बड़ा सुख मिला था ,और जिस दिन अपनी पुत्री का विवाह किया तो सबसे बड़ा आत्मिक सुख मिला , मैं सुखरूप हूँ क्योकि सुख ही हैं जिसने मुझे जीवन से बाँध रखा हैं।  किन्तु एक बार मैं बड़ा दुखी हुआ ,उस दिन मेरी बहन के पति को मैं बचा नहीं सका ,लगा मैं बहुत निर्बल हूँ ,वैसे ही जैसे मैं अपनी कैंसर पीड़िता माँ को बचा नहीं पाया , वह दुःख आज तक मुझे घेरे हुए हैं ,वह दुःख आज तक मेरी रक्तनलिकाओं में बहता हैं ,मुझे लगता हैं मैं दुःख ही हो गया हूँ शिवे ! इस दुःख को समाप्त करने के लिए एक पंडित से बात की उसने बताया एक मन्त्र जिसका मुझे ११०००० जाप करना था, मैंने वह भी किया ,चार तीर्थ भी सपरिवार हो आया , वेद पुराण पढ़े ,कई बार घर में ही यज्ञ करवाए ,इनसे मिली शांति से ही मैं जीवित रह पाया माते ,मुझे लगता हैं मंत्र जाप करते, करते वेदो को पढ़ते मैं स्वयं ज्ञानमय हो गया ,तो मैं ही मंत्र, उसकी शक्ति ,वेद ,यज्ञ ,हवन आदि सभी हूँ।  अरे हां ! मुझे मेरे दुःख से निकालने में और सुख प्रदान करने में ,मेरे शरीर को गढ़ने में भोजन ने बहुत मदद की ,सुस्वादु भोजन जब मैं करता मैं अन्नमय हो जाता ,ऐसा लगता यह स्वाद भरा भोजन मैं ही हूँ ,और इस भोजन का और सब सुखों का भोक्ता तो मैं हूँ ही !
 आपका इतना कहना था , मायामयी गौरी गाने लगी – “न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञ ।अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता”. आपको यह विचित्र लगने लगा , आपने माया से कहा – तुम क्या जानो माता ,मेरी जन्मदायिनी की मृत्यु के पश्चात् जिस दुःख से मैं निकला मैं मृत्यु के भय से व्याकुल रहने लगा , जिस तरह से लोगो ने मुझसे तब व्यहवार किया मैं लोगो में भेद करना सिख गया , फिर कुछ वर्षों पश्चात मैं पिता बना , मैंने और मेरी संगिनी ने माता-पिता बन बच्चो का लालनपालन किया और तबसे मुझे लगने लगा जैसे मैं अपने आसपास रहने वाले हर सरल इंसान का पिता हूँ ,उसे पोषित करने वाली माता भी मैं ही हूँ। मैं सबमे बंधू भाव देखने लगा , सभी का सुखदुख बाटने लगा ,सभी को भाई बहन की तरह प्रेम से सँभालने लगा , कभी गुरु बन जाता कभी शिष्य  मैं एक ही होकर कई- कई बना , माते। शिव की गौरी आपकी यह बात सुन पुनः गुनगुनाने लगी “न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः,पिता नैव मे नैव माता न जन्मः ।न बन्धुर्न मित्रं गुरूर्नैव शिष्यः “
आपको लगता हैं आप गौरी से तर्क में हार गए ,इतना ही नहीं आप अपना समस्त हार गए ,आप संदेह और उलझन की उस अवस्था में पहुँच जाते हैं जिसका कोई पार नहीं ,आप पुनः आँखे बंद कर लेते हैं,आपको पुनः शिव दिखाई देते हैं आनंदमय अपने आप में बैरागी की तरह झूमते , न तो मोह ,न उलझन ,न कष्ट ,न दुःख , न पीड़ा न कोई सांसारिक आनंद , न ज्ञान – न अज्ञान , न धन – न मान , न इच्छा – न अनिच्छा , न द्वेष – न राग , न वात्सल्य – न काम , न शरीर से बंधे – न शरीर से ऊपर।  बस निर्विकल्प ,निराकार ,फिर भी साकार , सबमे समाहित ,सारे इन्द्रियों में बसे ,फिर भी इन्द्रियातीत , न मुक्त – न बंधक  मात्र शिव जो सत्य – चैतन्य और परमानन्द स्वरुप हैं।  जो सर्वत्र हैं और कही भी नहीं हैं , जो सब कुछ हैं पर कुछ भी नहीं हैं , जो आप हैं पर आप भी नहीं हैं।  अबकी शिव की  माया आपके देह में प्रवेश कर जाती है लेकिन इस बार कोई प्रश्नोत्तर नहीं होता ! कोई द्वैत नहीं होता , कोई तर्क नहीं होता , आप शिव और शिवा सब एकरूप हो सस्वर गाते हैं – अहं निर्विकल्पॊ निराकाररूपॊ विभुत्वाञ्च सर्वत्र सर्वेद्रियाणाम् ।न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ! चिदानंद रूप : शिवोहम।
आप आँखे खोलते हैं , स्वयं को पुनः लोनावला की पहाड़ी पर पाते हैं ,वही बादल ,वही झरने वह बहती जीवन नदियां पर आप बदल जाते हैं , अब न कोई शोक हैं ,न विकार , न दैन्य , न साहस , न कोई नाम हैं न नाम से जुड़ा भ्र्ममात्र अस्तित्व ,आप शिव हैं और यह संसार आपकी माया ! अब आपके लिए सब कुछ सरल हैं , सब कुछ आसान हैं। आप पूर्ण हैं ,सचिदानन्द हैं और अगर कुछ हैं तो मात्र यह आनंद हैं।  आप जीवन के अर्थ को ,उसकी वास्तविकता को ,स्वयं को समझ जाते हैं , सब कुछ मानो हल्का – हल्का हो जाता हैं , सब कुछ मानो आपके बचपन सा हो जाता हैं , आनंदमग्न – आनंदमय – आनंदरूप – शिवस्वरूप।  आप मन ही मन आदि शंकराचार्य को धन्यवाद देते हैं निर्वाणषटकम लिखने के लिए और आनंदमय होकर गुनगुनाने लगते हैं चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम – चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम – शिवोहम शिवोहम सच्चिदानंदोहाम !
Dr.Radhika Veenasadhika
above article is written by our director Dr.Radhika Veenasadhika and its the copyright property of Veena Venu Art Foundation

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