एकत्व : राग का समय ,पुरियाधनाश्री का भाव और राग ध्यान के संबंध में एक चिंतन

जब दिवस और रात्रि के एक दूसरे में समाकर एक हो जाने का समय आता हैं तो उसे कहते हैं संधिकाल। संधि अर्थात मित्रता,जोड़,जुड़ाव। काल अर्थात समय। जब दिवस भर के भौतिक जगत के कार्यों में व्यस्त आत्मा,परमात्मा में जुड़ने के लिए व्यथित होने लगे,अंतर्मन स्वरों के रूप में प्रवाहित हो,सृष्टि के कण – कण में विसर्जित होने लगे ,उन स्वरों को राग का स्वरुप मिलने लगे तो उत्प्पन होता हैं पुरियाधनाश्री . पूर्वी और धनाश्री की संधि।  पूर्वी की श्रुतियों का धनाश्री से जोड़  अर्थात पुर्याधनाश्री।
सृष्टि का कारण हैं अभिव्यक्ति , अभिव्यक्ति का प्रथम स्वरुप हैं नाद।  प्रणव ओंकार रूपी नाद जब भौतिक जगत के हास , शोक , क्रोध , उत्साह ,जुगुप्सा ,विस्मय ,निर्वेद ,वात्सलता ,आदि भावों से जा मिलता हैं , तब मानव मन से उत्स्फूर्त होती हैं विभिन्न स्वरलहरियां।  इन स्वरलहरियों  का प्रारंभ चूँकि उस अवर्णनीय , अतिपवित्र ,अतिशुद्ध ॐ से होता हैं  इस कारण अपने शुद्ध स्वरुप में हर स्वरलहरी दैवीय होती हैं। किंतु जैसे – जैसे यह स्वरलहरियां मानवमन रूपी भुवन और मानव मस्तिष्क रूपी ब्रह्मांड से जा मिलती हैं वैसे – वैसे स्वरलहरियों का मिलन होता हैं जग में उपस्थित ,शोक ,दुःख ,आनंद ,माया ,प्रेम ,वैराग आदि भावों से।  दैवीयता से परिपूर्ण और मानवीय भावगुणों भीगी – भीगी यह स्वर लहरियां गायक के कंठ में स्थित हो किसी राग के स्वरुप में प्रकट होती हैं और फिर से सृष्टि में प्रवाहित हो ,भवन ,भुवन ,भूलोक से होती हुई ,सकारात्मक ब्रह्मांड से चलते -चलते अकार , उकार, मकार से होती हुई पुनः जा मिलती हैं ओमकार में और फिर अंतिम सत्य अपरंपार में।
इसी को कलाकार कलासृष्टि और सुनकार रागाभिवयक्ति कहते हैं।  किंतु देखा जाये तो यह प्राकट्य और विलय की सतत प्रवाहमयी धारा हैं . वही से आना और उसी में मिल जाना ,पुनः जन्मना और पुनः मिल जाना ही हैं।
राग का समय  सा रे ग म कहे जाने वाले जड़ शब्द नहीं निर्धारित करते। राग का समय निर्धारित करते हैं उन स्वरों में लिपटे भाव , उन स्वरों की वह श्रुतियाँ जो मानव मन रूपी विश्व को स्वरों के रूप में प्रकट करना जानती हैं।  सा, रे ,ग, म लौकिक हैं ,श्रुतियाँ अलौकिक।  सा रे ग म कोई भी गा सकता हैं लेकिन राग का गायन हर किसी के बस की बात नहीं ,क्योकि राग मनुष्य कंठ से प्रकट भले ही होता हो ,पर मनुष्य कंठ की वो योग्यता या काबिलियत हैं ही नहीं जो राग को गाये  , वह तो स्वयं प्रकट होता हैं मानवीय कंठ में  , स्वयं प्रस्फुटित और स्वयं स्फूर्त ।
मानव शरीर की अपनी एक सीमा हैं ,अपनी एक अवधि।  हम सब कुछ एक अवधि के अंदर करते हैं।  इसलिए एक मनुष्य रूपी कलाकार राग को गाने या  बजाने का अपनी समय सीमा में प्रयत्न  करता हैं ।  स्वरश्रुति में बद्ध राग उसकी अपनी चेतना से घुलमिल सा जाता हैं ,धीरे – धीरे यह चेतना जब परम चेतना से मिलने लगती हैं, कलाकार साधो हो जाता हैं , फिर एक काल आता हैं जब गायन या वादन कालातीत हो जाता हैं और इस समय राग का निश्चित मानव निर्मित भाव समाप्त हो हर राग दैवीय हो जाता हैं . हर स्वर शांत हो , एक नादबिंदु ,प्रणव बिंदु ,परम बिंदु ओंकार हो जाता हैं।
कुछ कहते हैं ,राग का चित्ररूपी स्वरुप ,उसकी मानव रूप में कल्पना ,उसका सशरीर ,भौतिक रूपी ध्यान सब बस कपोल – कल्पनाएं हैं  ! सब आत्म निर्मित बातें ! अब कहिये ये तो वैसा ही हुआ जैसे ईश्वर के सारे रूपों को कोई निराधार कह दे।  मूर्ति पूजा का सत्य जाने बिना ,मूर्ति पूजक को अंधविश्वासी कह दे ! राग समय को लेकर बड़ी सारी बातें होती हैं ,कुछ लोग कहते हैं राग के समय निर्धारण में कुछ तो तर्क होगा , तो कुछ कहते हैं अब दक्षिणात्य संगीत पद्धति में राग समय को कोई विशेष महत्व हैं नहीं तो क्या गायन – वादन से उत्पन्न परिणाम कुछ कम हुआ ? बात तो यह भी सही हैं। राग तो फिर भी रंजक ही रहा ,राग तो फिर भी आनंददायी ही रहा ,राग तो फिर भी अभिवयक्ति का माध्यम ही रहा।  लेकिन हम यहाँ बात उत्तर या दक्षिण के मतभेद की नहीं कर रहे ,हम बात कर रहे हैं नादोत्पन्न स्वरलहरी की ,जिसकों हमने अभी हाल ही मन के भावों से घुला मिला कर वापस ईश्वर के चरणों में धर दिया।  इस भौतिक जगत में जहाँ सबकुछ काल बद्ध हैं ,सब कुछ नियत हैं ,सब कुछ समय से संबद्ध हैं तो राग क्यों कर समय से पृथक -विथक रह सकता हैं। मानव शरीर की अपनी गति हैं ,अपनी चाल। हमारे दीवार से टंगी घड़ी जैसी मानव शरीर की भी अपनी एक घड़ी हैं।  मन में उठने वाले भाव स्वरलहरियों में रूपांतरित हो जब ह्रदय में प्रतिष्ठित होते हैं तब यह घड़ी दर्शाती हैं ,हमारे आंतरिक शारीरिक परिवर्तनों को। हर स्वर के साथ ,हर भाव के साथ शरीर की घड़ी ,हर धमनी और शिरा में प्रवाहित होते रक्त के गति को अपनी दिव्य आँखों से देखती समझती हैं ,वह उस प्रवाह में आये हर अंतर को अपनी स्मृति में प्रलेखित करती हैं। शरीर का काल और बाहरी जगत का काल इनका आपस में गहरा संबंध हैं।  राग ध्वनि कंठ से उत्पन्न हो जब कानों में वापस पहुँचती हैं तो इस मध्य के समय में वह बाहरी वातावरण ,दिन के काल और उससे संबद्धता को तीव्रता से अनुभूत करती हैं।  यह अनुभूति शब्दों में लिखी जाए इतनी साधारण नहीं होती।  ईश्वर ने रचित काल और दिवस रात्रि के प्रहर यह सब गणितीय ,और भौतिकीय विषय मात्र नहीं हैं। काल और कला एक दूसरे के पूरक हैं ,काल जहाँ समय के रूप में प्रतिष्ठित हैं ,कला उसी समय में रची ,समय में बंधी और फिर भी समयातीत अभिव्यक्ति ! दोनों ही सृष्टि हैं और दोनों ही के साथ जुडी हैं एक दिव्य दृष्टि।  काल की दृष्टि का वर्णन साधु संतों ने कर रखा हैं ,लेकिन कला की दृष्टि कलाकार की चेतना ,उसके भौतिक स्वरुप ,भौतिक जगत के सत – रज – तम गुणों ,उसकी प्रवृतियों ,उसकी भावनाओं – इच्छाओं ,उसकी अभिवयक्ति की क्षमताओं से प्रभावित होती हैं।  इसलिए एक समूह जब एक राग का ,या कोई साधु संगीतकार एक राग का कोई  एक रूप तय करता हैं , उसका शारीरिक वर्णन ,गुण – धर्म – भाव बतलाता हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  हमारी सृष्टि सकारात्मक हैं इसलिए हमारे राग भी साकार रूप ले मनीषियों के सम्मुख उपस्थित हुए हैं।
अब पुरियाधनाश्री की ही बात करले।  एक गहरापन ,एक गहराई ,  एक दिव्यता इस राग में अनुभूत होती हैं।  राग जहाँ सातों सुरों से समृद्ध हैं ,वही निषाद से प्रारंभ होने के कारण सात्विक , जहाँ श्री का अंश रूप रे नि ध प राजसी गुण ले आता हैं , वही प का प्राधान्य उसे कारुण्य और प्रेम से जोड़ता हैं।
प्रताप सिंह जी ने इस राग का रूप कहते हुए लिखा हैं –
श्याम रंग हैं।
पीताम्बर पहने हैं।
सब अंगन में आभूषण पहरे हैं।
एक हाथसों कमल फिरावे हैं।
मोतिन की माला कंठ में हैं।
सखी जाके संग हैं।
वन में विहार करे हैं।
आनंद के आसूं जिसके नेत्र में हैं।
अब जरा इसके पीछे का भाव समझने की कोशिश करते हैं  . श्याम रंग हैं – श्याम रंग जहाँ ढलते हुए दिन को बताता हैं ,वही उसका संबंध मनुष्य के मन के उन भावों से भी हैं जो भौतिकता का ढलान और सात्विकता की और प्रवृत होने का अनुरोध हैं। श्याम रंग हैं दिव्य बौद्धिकता का ,दर्शनात्मकता का और परिपूर्णता का ,शून्य हो जाने का।
पीताम्बर रहने हैं – अब रंग तो श्याम हैं लेकिन पहन पीताम्बर रखा हैं , पीताम्बर याने पीला अंबर ,तो जहाँ यह पंक्ति एक और संधिकाल के समय की आकाशीय स्थिति को दर्शाती हैं वही पीताम्बर का पीतवर्ण दर्शाता हैं  वैभव को ,समृद्धि को ,राजसिकता को , मनुष्य मन की सारी लौकिक इच्छाओं को।
सब अंगन में आभूषण पहरे हैं का यथावत अर्थ हम सब स्वरों का होना ले सकते हैं ,लेकिन आभूषण जैसे विविध रंगो – गुणों  के पत्थरों और विविध धातुओं से बने होते हैं वैसे ही इस राग में अलग अलग छटाओं , सुवर्ण सी दिव्य और रजत सी शुभ्र विविध श्रुतियों ,स्वर के साथ मानवीय गुणों की अभिवयक्ति की संभावनाओं को भी यह वाक्य दर्शाता हैं।
एक हाथसों कमल फिरावे हैं – कमल संकेत हैं हमारे सहस्त्रार चक्र का ,हमारे अंदर छिपे दैवीय ज्ञान का , दिव्य ज्ञान का ,भौतिकता और दैवीयता के मिलन का।
मोतिन की माला कंठ में हैं – अर्थात विशुद्धि चक्र से उपजता हर स्वर हर श्रुति पूर्णत : दैवीयशुद्धता ,सरलता ,सहजता से ओतप्रोत हैं।  शुभ्रता और मोती का कंठ में होना अर्थात ऐसे स्वरों का गायन जो सरस्वती के सामान हो।  इस तरह राग का गायन सरस्वती का पूजन भी हैं।
सखी जाके संग हैं – सखी अर्थात भावना ,एक ऐसा स्थान या ऐसा कोई जहाँ मन के अंदर की हर बात को कहा जा सकता हैं , सखी जाके संग हैं अर्थात जहाँ स्वर और भावाभिव्यक्ति का एकीकरण हो रहा हैं .
वन में विहार करे हैं – वन अर्थात वह लोक जहाँ सब ओर  शांति हैं ,सौंदर्य हैं ,जीवन हैं ,पुष्प हैं ,लताएं हैं ,झरने ,नदी पानी हैं।  पुरियाधनाश्री का गायन जीवन रूपी वन में विहार हैं ,जहाँ हर भाव ,हर स्वर में कहा जा सके।
आनंद के आंसू जिसके नेत्र में हैं – आनंदाश्रु सहज ही नही आते ,आनंदाश्रु आनंद की अति होने पर ,कोई सिद्धि होने पर ,कुछ बहुत बड़ी उपलब्धि होने पर आते हैं। अब यदि पुरियाधनाश्री की आंखों में आनंदाश्रु हैं तो वह हैं क्योकि यहाँ आत्मा परमात्मा के साथ एकाकार हो रही हैं। भौतिकता – दिव्यता में रूपांतरित हो रही हैं।  साधारणता -असाधारणता में परिवर्तित हो रही हैं।
जीवन में जब हम किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ते हैं ,या कोई ऐसा योग आता हैं जो हमारे आसपास की हर वस्तु ,घटना, प्राणी के रूप में हमारा मत बदल दे तो होता हैं तो वह होता हैं संक्रमण का काल अर्थात संधिकाल और जिसके जीवन में अर्थात जागतिक वन में कोई संक्रमण आया वही उसका हुआ रूपांतरण।  यही योग की क्रिया हैं यह योगी की उपलब्धि और राग के स्वरुप के रूप को पहचान कर जो यह संक्रमण करेगा वही होगा स्वरयोगी और उसे ही मिलेगी स्वरसिद्धि।
पूर्वी के सा सा रे सा नि, सा रे ग, म ग (रे कोमल म तीव्र ) जहाँ स्थिरता का भाव उत्पन्न करते हैं, जहाँ स्थिर शांति का भाव बतलाते हैं ,जहाँ व्यावहारिकता को स्पष्टता से अभिव्यक्त करते हैं , वही पुरियाधनाश्री के सा सा रे रे सा नि , रे ग ,म रे ग ,प (रे कोमल म तीव्र ) मधुरता ,आर्जव , अनुरोध ,मुमुक्षा ,एकरूपता , एकात्मकता , को दर्शाते हैं।  सा सा रे सा नि जहाँ जगत की समबुद्धि से स्वीकृति हैं वही रे ग यह स्वरसंगति मन में उपजा बैराग हैं , म रे ग ,परम प्रेमी (फिर वह चाहे ईश्वर हो या कोई मानव ) को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा , या मोक्ष प्राप्ति की मुमुक्षा , प पर ठहराव वही पूर्णता को प्राप्त करने का ,पूर्ण होने का ,प्राप्त होने का संतुष्ट भाव।
पुरियाधनाश्री का स्वरुप ,उसका समय सब उतना ही सच हैं जैसे हमारी यह सृष्टि और इस सृष्टि में घटित होती हर घटना।  किसी भी राग का समय उसके स्वरमात्र का समय नहीं उसके श्रुतिरूप से जनित उसके परम स्वरुप का ,उसके इस संसार में होने का ,संसारी होने का समय हैं ,उसके और कलाकार के परसपर संबंध में होती कालदशा -योगदशा – भावदशा का समय  हैं।  किसी भी राग का मानवीय स्वरुप ,उसका ध्यान ,उसका मानवीय – सांसारिक रूप में वर्णन ,उसका सही मायनों में मानवीय कंठ से प्राकट्य हैं , उसका वह रूप हैं जो गुणियों को मान्य हैं  ,जो चिंतन से परे की स्थिति में अर्थात ध्यानावस्था में प्राप्त हैं।
राग समय को लेकर मैं वर्षों से संगीतमुनियों से प्रश्न करती आयी हूँ ,उसके समय और स्वरुप में मेरा दृढ़ विश्वास और आस्था हैं।  मैं मानती हूँ की राग का समय और उसका स्वरुप फिर वह चाहे चित्रमय हो या ध्यान रूप में कहा गया सब तार्किक – सुसंगत हैं।  कुछ कहते हैं कुछ रागों के तो पुरे के पुरे स्वरुप – स्वर सहित बदल गए हैं , तब पुरानी  बातों  का क्या फायदा ?  मेरा कहना हैं सच हैं कि बहुत से रागों का स्वरुप सांगीतिक दृष्टि से बदला हैं ,लेकिन स्वर संयोजन और स्वर लहरी ,श्रुति पर अगर ध्यान दे, तो हो सकता हैं हम ही यह कहे कि हाँ यह राग अभी भी समय के इस चक्र में आसपास इसी जगह ,या पूर्णत : इसी जगह सही बैठता हैं।
अंत में यही कहूँगी यह संसार भावमय हैं ,स्वर श्रुति ,समय सब भावमयि सृष्टि के ही अंग हैं , राग भावरूप हैं इसलिए संगीत का सौंदर्य शास्त्र हैं ,इसलिए रस सिद्धांत हैं ,इसलिए स्वर की सृष्टि अजर अमर हैं।  स्वर वह धारा हैं जो अनादि को आदि से जोड़ती हैं।  जो नाद से उपजी ,भौतिक जगत की कलाओं में लिपटी , मानव मन से बहती हुई उसी परम धाम को पहुँचती हैं जहाँ से उसका आना हुआ था।  ध्यान से देखे तो स्वर ,राग ,राग का समय ,राग का रूप ,गायक ,गायक का भाव , गायन से उतपन्न रस , स्वर से उपजी स्वरसमाधि  सब कुछ एक ही हैं। कही भी कोई द्वैत हैं ही नहीं, बस हैं तो एकत्व !
इति
डॉ राधिका वीणासाधिका
Article is subject to copyright of Veena Venu Art Foundation and Dr.Radhika Veenasadhika

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